Friday, 11 July 2014

कहीं कोई हवा चले ...
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इन 
गुंचों को यूँ ही महकने दे
ज़ीस्त में 
कुछ देर और ....
न जाने 
कब कोई हवा 
बदरंग कर दे 
इस पुरकशिश बाद-ए-सबा को |
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रामकिशोर उपाध्याय

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