Wednesday, 2 July 2014

कंटकों में टंगी आराधना 
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मरुस्थल ... 
विस्तृत हो गया सामने 
एक लम्बा और उबड़ खाबड़ सा
शायद किसी ने प्रेम में आँखों को विरत कर दिया होगा 
इच्छाओं का जल से ...
और उगे गए सिर्फ खेजड़ी और केक्टस
नुकीले तनों पर खिले फूल
जैसे भग्न ह्रदय के अनुभाव
कभी दिखाई पड़ते है निशान ऊंट के पाँव के भी
जैसे कोई छोड़ गया स्मृतियां
हवा के एक झोंके से विलीन होने के लिए
शायद यह सोचकर
कि प्रेमपथ का कोई अनुसरण न करे
परन्तु वह पथिक जरुर जानता होगा
कि इस युग में न मिलती है हीर
न उसकी जैसी तकदीर
न आयेगा कोई राँझा
जो करेगा हीर का गम साझा
न होगे महिवाल
जो हो इश्क से लबरेज और जज्बात से मालामाल
न सोहनी
जैसी बनेगी कोई मोहिनी
*
मरुस्थल ..
बस है एक वक्षस्थल
पीड़ा और वेदना का
जो सतत ढूंढ रहा है कोमल संवेदना ...
जो कर रहा कंटकों में टंगा अपनी आराधना ....

2 comments:

  1. बहुत सार्थक और भावपूर्ण रचना...

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    1. संजय भास्कर जी ,,आपकी स्नेहिल टिप्पणी के लिए आभारी हूँ ...

      रामकिशोर उपाध्याय

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