Thursday, 8 May 2014

मेरा मन
---------
सूर्य ...
सचेत व्योम से ताकता रहा 
और मेरी इस नश्वर काया से
बूंद-बूंद बनकर टपकता रहा
अतृप्त कामनाओं के प्रति मेरे आक्रोश का लावा ....
चन्द्र.....
सुप्त नभ से निहारता रहा
और मेरे स्थूल से
ओस बनकर बरसता रहा
मेरे ही आकारहीन स्वप्नों का सरमाया ........
अवनि .....
बेबस हो देखती रही
कभी राग के
और कभी द्वेष के पीछे भागता रहा
मेरा मन मरीचिका का भरमाया ........
==========================
रामकिशोर उपाध्याय
Like · 

No comments:

Post a Comment