Friday, 18 October 2013

नहीं लौटा पाया हूँ !
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जब मैं
बचपन में
खेत में काम करता था
हथेलियां खुरदरी हो गयी थी
माँ ने स्नेह से समझाया
पढलिख कर जब बड़े बन जाओगे
ये हाथ फिर बच्चे जैसे हो जायेगे  
तुम्हे सिर्फ कुछ दस्तखत करने होगे
कुछ कागज़ो पे

आज
भी मेरी हथेलियां
वैसी ही खुरदरी हैं
फाइलों को उठाते -उठाते
उनके पन्ने पलटते -पलटते
उनपर नोट लिखते -लिखते
बल्कि अंगूठे और ऊँगली से कलम पकडे पकडे
एक ठेक सी बन गयी हैं
निगाह उतनी ही
चोकस रखनी पड़ती हैं
जितनी गन्ना काटने में
अब तो
जीभ भी खुरदरी हो जाती है
कभी-कभी अमर्ष से


शायद बदलता कुछ नहीं
हालात बदलते हैं
नजरिया नहीं
माँ की वाणी सच हुयी
दस्तख़त तो करता हूँ
पर कोमलता नहीं
लौटा पाया हूँ हथेलियों की
मेरे बालपन की कोमलता ......

रामकिशोर उपाध्याय

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