Tuesday, 15 October 2013

खुली खिड़की ========

कल
खिड़की
खुली रह गयी थी
घर की ...
रात कब कट गयी पता ही चला
पलकें भारी थी
सपने आँखों की देहरी पर
सर रखकर सो गए
मुझसे प्रश्न पूछते पूछते

शीतल पवन के झोंके
बिन बुलाये अतिथी के समान
अन्दर चले आ रहे थे
सोचा बंद कर दूं
खिड़की .....
देखा तो बाहर धुंध छायी थी
बहुत गहरी ....

ओस की बूंदे
पत्तों पे पड़ने के बजाय
वायु में जम गयी थी
विरह की शीत से
तभी एक युगल का चित्र उभरता है
उपयुक्त वातावरण को तलाशता
याद आया प्रकृति अक्सर ऐसा करती रही हैं
एक धुंध का सृजन करके
सत्यवती और शांतनु
का महाभारत काल
सामने उपस्थित हो गया ....
कांच साफ़ करता हूँ
और आंखे मसली तो भ्रम निकला
कही यह मेरा
दिवास्वप्न तो नहीं था
जो भी हो परन्तु
बाहर का धुंध
भीतर की और मुड गया
और हाथ
खिड़की को बंद करने के लिए बढ़ गए .........

रामकिशोर उपाध्याय

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