Thursday, 9 May 2013

मेरी जिन्दगी -मेरी बंदगी
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वो आई
मेरी पलकों के पालने में झूलती 
बस गयी आँखों में,
सोन्दर्य से परिपूर्ण
पर काजल नहीं थी
गुरुता लिए
पर वो नींद भी नहीं थी
चंचल लहरों सी अठखेलिया करती 
वो शरारत तो कभी  नहीं,
वो थी चाहत की चमक
जीने के विश्वास की ललक
अनंत तक
सहचरी बनने की अक्षुण्य कामना लिए
उतर गयी अंतर के सुदूर क्षितिज तक
उदात्त ,मदमस्त
व्यस्त , कभी -कभी अस्तव्यस्त
ओज से सिक्त
बद्ध भी और मुक्त भी
भोग भी और योग भी
आस्था भी अनास्था भी
ईश के निकुंज  से निकल कर
बिना पदचाप के
और न जाने कब बन गयी
मेरी जिंदगी !!!!
मेरी बंदगी  !!!!!!

राम किशोर उपाध्याय 

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