Thursday, 5 April 2012

सलीब खुद के कांधें पर आज भी


उठा कर चल रहा हॅू मैं

सलीब खुद के कांधें पर आज भी --

ठुकी हैं कीले

मेरे जिस्म में आज भी--

गर एक भी आंसू आंख के किसी कोने मे आया

तो जमाना रो पडेगा

यह जानकर मैं रोता नही

कर रहा हॅू प्रार्थना

हे पिता !

क्षमा कर दो उन्हे

वे जानते नही वे क्या कर रहे हैं

सह रहा हॅू दर्द बडी़ खामोशी से --

कि वह उतर लाये मानवता के सीने में

करुणा बनके

प्रेम बनके

और उभर आये मुस्कान बनके

उसके चेहरे पर

जो कभी हंसा ही नही

जाति की चिट़ठी

 
अपनी खुशी से चमन में कलियां कहां खिलती हैं ,
यहां तो खुदा से ज्यादा बागवां की मरजी चाहिये ।

अपनी जिद से वतन में खुशियां कहां मिलती हैं,
यहां तो जज्बात से उपर सिरो की गिनती चाहिये ।

अपनी फिक्र से नफरत की दीवार कहां गिरती हैं,
यहां तो बातों से ज्यादा दिलो की गरमी  चाहिये।

अपनी खुदी के बूते ही मंजिल  कहां मिलती हैं,
यहां काबिलियत को भी जाति की चिट़ठी चाहिये ।