प्रिय मित्रो ,
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'आकाश को मुस्कराते देखा '
कल
छत से आकाश को
धरा के लिए मुस्कराते देखा .
बादलों से परियों को
प्रेम के लिए उतरते देखा .
हवा से जुगनुओं को
तैरने के लिए बतयाते देखा .
तारों से चाँद को
रौशनी के लिए उलझते देखा .
कहीं -
मैं न देखता ही रहूँ ,
डराने के लिए बिजली को कड़कते देखा .
कल
छत से आकाश को
धरा के लिए मुस्कराते देखा .
फूलों में चांदनी को
छिपने के लिए बिखरते देखा .
पेड़ो में चाँद को
छूने के लिए लपकते देखा .
शाखों में खगों को
जीने के लिए सिमटते देखा .
पत्तों में नमी को
मिटने के लिए लुढ़कते देखा .
कहीं –
मैं जागता ही न रहूँ
भोर में किरणों को रचने के लिए विचरते देखा.
कल
छत से आकाश को
धरा के लिए मुस्कराते देखा .
२०.१०.२०११
it is very refreshing poetry..
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