Monday, 23 August 2021

हायकु

 1.

सकूरा पुष्प

बसन्त आगमन

विश्व मुदित

2*

सकूरा पुष्प

संस्कृति भी महान

जापानी जादू

3*

ख़ुशी संचार

रंगों की है बहार

भिन्न प्रकार

4*

पेड़ हैं लदे

सुन्दरता का दर्प

झूमी धरती

5*

सकूरा दृष्ट

सभी हैं मदमस्त

मृदंग व्यस्त

6*

भूमि महान

लुटता है किसान

जीना मुहाल

7*

झाड़ू है चोखा

किसान का है धोखा

भोपूं है चीखा

8*

सत्ता नाटक

लाश पे सियासत

नज़र वोट  

9*

है  बदलाव
सर्दी की ठिठुरन 
बर्फ  अलाव
10*

 नया जुगाड़
 घोडा चलता  पीछे
टमटम के  

11*

होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम .
12*
आज की सत्ता 
नेता बनता  स्वार्थी
प्रजा बाराती .
13*
शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन

14*

लोकसेवक
मिथ्या ही पहचान
माया गबन

15*

जीवनलता

पुष्प- फल असंख्य

सीमित प्राप्ति

16*

मदन मस्त

प्रेमलता व्याकुल

वर्जना बाधा

17*

अश्रु की धार

जगत अत्याचार

प्रेम लाचार

*

रामकिशोर उपाध्याय


Monday, 15 March 2021

वो कौन थी ? ----------

 

न तो उससे पहले मिला था
न शायद फिर कभी मिलूँगा
मगर उसकी देह को स्पर्शकर
आया था सुगंध का इक झोंका .........

वो शायद मत्स्यगंधा थी
मेनका थी या फिर रम्भा थी
वो प्रेम सरोवरों में पम्पा थी
वो कामदेव की प्रिय चंपा थी ............

वो कोयल की कूक थी
वो मन की अनकही भूक थी
किसी बहती नदी का पानी थी
सागर की लहरों की रवानी थी ..........

वों स्वप्न सरीखा परिंदा थी
जो दिन के उजालों में भी जिंदा थी
जिस्म में वो धडकन थी
उम्र में वो यौवन और बचपन थी ....

वो नाम न पहले सुना था
और न कहीं लिखा होगा
न किताबों में किस्सा थी
वो तो कल्पना का हिस्सा थी ....

वो कौन थी ?
न आँधी और न गुम हवा थी
वो मेरे हर दर्द की दवा थी
वो सन्नाटे में चीखता मेरा मौन थी .........
*
रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 18 February 2021

आदमी और पत्थर

चित्र गूगल से साभार )


राह चलते- चलते

अनेक पत्थर मिलते हैं
कहीं धूप में तपते
तो कहीं चांदनी को तरसते
कहीं मूर्तिकार की महीन छेनी से कटते
और वांछित आकार न मिलने पर आंसू बहाते
कहीं नदी में तैरते और रगड़ खाकर भी
शालिग्राम न बन पाने पर विधना को कोसते

पत्थर ......
कहीं बर्फ़ के तले जमते
और धूप को ढूंढते
कहीं सड़क में बिछते
और राजमार्ग न कहलाने पर विक्षुब्ध होते
कहीं किसी भवन की नींव में खपते
और हवा को तड़पते
कहीं ज्वालामुखी बन फटते
और ग्लेशियर को समेटने की पीड़ा पाते
और बहती नदी को रोकने के लिए होते अभिशप्त
तो खुली सड़कों पर ठोकर खाते
पत्थर ,,,,

पत्थर का मानव से ,,,,
शाश्वत सम्बन्ध है
वही संबंधों को समेटने की पीड़ा ,
वही उपादेयता का प्रश्न
और वही परिचय का संकट
कभी एक गुमनाम हवेली की नींव में लगा
तो कहीं एक मंदिर में गड़ा
पत्थर सा इन्सान,,,
जिसकी जीवंत अभिलाषाएं
मूक होकर नभ को ताकती रहती हैं
अनंत तक ...
मूर्त होने का क्षण
*
रामकिशोर उपाध्याय