Sunday 22 June 2014


वह एक झील 


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वो एक दरिया के मानिंद 
बहती रही ...
कभी किनारे-किनारे 
कभी मझधारे
कभी पत्थरों से टकराती
तो पिघलते ग्लेशियर से गले लगकर मिलती
कश्ती को रास्ता देती
तो कभी मल्लाह की गलती से उलटती कश्ती को देख हंसती
बस एक ही मंजिल थी उसकी
अपने समंदर से निरन्तर एकाकार होना
अचानक उसकी चाल में
एक तेज मोड़ आया
वह चढ़ने लगी पहाड़ की ओर
उसे देख दरख्त हंसने लगे
जंगली जानवर चिल्लाने लगे
वह क्या करती
सामने खड़ी थी नियति
वह बस ठहर गयी पहाड़ की एक चोटी पर
समंदर से कह दिया कि आना है मुश्किल
एक शांत झरना इधर उधर से गिरता
जल लाकर रोज छोड़ने लगा
वह मीठे पानी की झील में तब्दील हो गयी |

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रामकिशोर उपाध्याय 

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति , रामकिशोरजी जी, एक असीम संमन्दर से एक छोटा सा पोखर भी अच्छा है जो किसी की तृष्णा तो शांत कर सकता है।

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  2. Ravindra Munshi जी सराहना के लिए आपका ह्रदय से आभारी हूँ ....

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