Wednesday, 26 December 2012

पाक मोहब्बत




लौटकर आऊंगा   फिर भी बार-बार,
दुत्कारो तुम मुझे चाहो जितनी बार।

दिल दिया है तुम्हे   जानबूझकर,
ये सौदा नहीं किया हैं हमने उधार।

जफ़ाओं से नहीं हूँ खफा कतई मैं,
इश्क की बाजी में तो होती है हार।

जुल्फें तेरी लहराये  किसी के कांधे पे,
मुझे क्या,पर फिर भी है जान निसार।

इस शहर में ढूंढ़ ही लेंगे एक मकान
मगर तुम  हमारे बिन रहोगे  बेजार।

ना उठा पाए हो बाजू  तुम्हारे ख्वाब
तुम्हारी  सांसों से आती हैं यहाँ बहार।

होशियारियाँ,बे-वज़ह



Young Man Looking Up With A Magnifying Glass


कभी कभी मन को उदासी बहुत घेरती हैं , बे-वज़ह,
कभी कभी आसमान को घेरती हैं 
बदलियाँ, बे-वजह। 

इस हादसों के शहर में कब क्या हो जाये पता  नहीं,
कभी कभी इंसान को 
 चीरती हैं  गोलियां, बे-वज़ह।

    बुलंद होसलें से जब हम  अपनी मंजिल को नापते हैं  ,
    कभी कभी अंजाम  को  ठेलती  है खामोशियाँ , बे-वज़ह। 

    कहते सयाने कि  बना भेस चलाचल जैसा हो देस तेरा ,
    कभी कभी मिजाज़ को कुरेदती हैं होशियारियाँ,बे-वज़ह। 
   

Monday, 3 December 2012

साहिल पे नज़ारा




साहिल पे मैं बस, मौजों का नज़ारा देखता हूँ,
वो जाती बार बार, मैं पैरों के निशां देखता हूँ।

जब लहरों में डगमगाती जब खुद्दार वो कश्तियाँ,
पुख्ता इरादे के नाखुदा में , मैं फ़रिश्ता देखता हूँ।

जहाँ तहां पड़े हैं यहाँ सीप, घोंगे और कौड़ियाँ ,
समेटने में मशगूल ,मैं परेशान जहाँ देखता हूँ।

जाल को काट कर हंस रही हैं व्हेल मछलियाँ ,
मछुवे के सन्नाटा परसे मैं बस मकाँ देखता हूँ।

मुसाफिर को जब छलती है सागर में दूरियां ,
इश्क में जलता ,खुद का ही दिया देखता हूँ।

दिन ढले अक्सर छाती हैं रूह में विरानियाँ
चांदनी से होता मैं चंदा का निकाह देखता हूँ।

घिरती रात में बढ़ती हैं लहरों की अठखेलियाँ
कल फिर मिलेंगे, इस यकीं में खुदा देखता हूँ।





(
साहिल पे नज़ारा को मैंने दुबारा लिखा है। आशा है कुछ अच्छा लगेगा।)

साहिल का नज़ारा




साहिल पे  मैं बस, मौजों का नज़ारा देखता हूँ,
वो  जाती बार बार, मैं  पैरों के निशां देखता हूँ। 

अक्सर  कश्ती को उलझते लहरों से देखता हूँ,
बैचैनी से नाखुदा  में,   बस खुदा को देखता हूँ।

सीप, घोंगे और कौड़ियाँ , दम तोड़ते देखता हूँ,
ख़ुशी से लपकते, ब्योपरियों को बस देखता हूँ।

फिर जाल को व्हेल से कटते हुए बस  देखता हूँ,
और मछुवारे के घर पसरे सन्नाटे को देखता हूँ।

बहुत दूर से  सूरज को बस ढलते हुए देखता हूँ 
आगोश में लेते आग,मैं समुन्दर  को देखता हूँ।

उठकर जाते हुए  घर, एक परिवार को देखता हूँ,
चांदनी को करते  इशारा, बस चाँद को देखता हूँ।

फिर बस बढ़ते हुए लहरों के शोर को  देखता हूँ ,
कल फिर मिलेंगे, कहते हुए  खुद को देखता हूँ।